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रात से गले मिलकर अब हम क्या क्या सहते हैं


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रात से गले  मिलकर अब  हम  क्या क्या  सहते हैं
रात की  तन्हाई भी सहते हैं  तेरा ग़म  भी सहते हैं

रौशनी से  था वास्ता जिन  का, मुंतजिर  शब के हैं
चिराग अंधेरें मे आशिकों  के अब  ग़म भी सहते हैं

सारी सारी रात तेरी हम बस याद में जागते रहते हैं
कभी ये सितारा देखते हैं कभी वो सितारा देखते हैं

ख़्वाबों की उंची उडाने भी  कभी  जिन्होने  भरी हैं
वो देखो अब  तितली से पर  उधार मांगते फिरते हैं

सब्र भी तो समर के पकने तक का चाहिए होता हैं
ना जाने कितने ही जुल्मो सितम  ये शजर सहते हैं

दीदार तेरा हो जाए कही, दिवाने की यही दरकार हैं
दर-ब-दर, कुंचा-ए-यार के हम दरवेश बने फिरते है

(。♥‿♥。)

Nandish Zadafiya

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